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प꣡व꣢मान रु꣣चा꣡रु꣢चा꣣ दे꣡व꣢ दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सु꣣तः꣢ । वि꣢श्वा꣣ व꣢सू꣣न्या꣡ वि꣢श ॥९०५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवमान रुचारुचा देव देवेभ्यः सुतः । विश्वा वसून्या विश ॥९०५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯मान । रु꣣चा꣡रु꣢चा । रु꣣चा꣢ । रु꣣चा । दे꣡व꣢꣯ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । सु꣣तः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । व꣡सू꣢꣯नि । आ । वि꣣श ॥९०५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 905 | (कौथोम) 3 » 1 » 5 » 2 | (रानायाणीय) 5 » 2 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पवमान) चित्त को शुद्ध करनेवाले (देव) आनन्ददायक सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (देवेभ्यः)प्रकाशक, ज्ञान के साधन मन, बुद्धि, आँख, कान, नासिका, त्वचा और जिह्वा के लिए अर्थात् उन्हें प्रकाशनशक्ति देने के लिए (सुतः) प्रवृत्त आप (रुचारुचा) अधिकाधिकप्रकाशन-शक्ति से (विश्वा वसूनि) उन सब निवासक मन, बुद्धि आदियों में (आ विश) प्रविष्ट होवो। भाव यह है कि आपके द्वारा दी गयी ज्ञान-प्रदान-शक्ति से पुनः-पुनः अनुप्राणित ये मन, बुद्धि आदि सदा ही ज्ञान अर्जन करने में जीवात्मा के साधन बने रहें ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सूर्य के प्रकाश से सब ग्रहोपग्रह प्रकाशित होते हैं, वैसे ही परमेश्वर के द्वारा प्रकाशित मन, बुद्धि, चक्षु आदि ज्ञान के ग्राहक होते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पवमान) चित्तं शोधयन् (देव) मोददायक सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (देवेभ्यः) प्रकाशकेभ्यः ज्ञानसाधनेभ्यः मनोबुद्धिचक्षुःश्रोत्रघ्राण-त्वग्रसनाभ्यः, तेभ्यः प्रकाशनशक्तिं दातुमित्यर्थः(सुतः) प्रवृत्तः त्वम् (रुचारुचा) अधिकाधिकया प्रकाशनशक्त्या (विश्वा वसूनि) सर्वाणि निवासकानि तानि मनोबुद्ध्यादीनि (आ विश) प्रविश। त्वत्प्रदत्तया ज्ञानप्रदानशक्त्या भूयो भूयोऽनुप्राणितान्येतानि मनोबुद्ध्यादीनि सदैव ज्ञानार्जने जीवात्मनः साधनतां प्रयान्त्वित्यभिप्रायः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा सूर्यप्रकाशेन सर्वे ग्रहोपग्रहाः प्रकाशिता जायन्ते तथैव परमेश्वरेण प्रकाशितानि मनोबुद्धिनेत्रादीनि ज्ञानग्राहकाणि भवन्ति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६५।२, ‘दे॒वो दे॒वेभ्य॒स्परि॑’ इति द्वितीयः पादः।